2014 के लोकसभा चुनावों में विजय प्राप्त कर केंद्र में सरकार बनानी है, कुछ ऐसी आशा और संकल्प के साथ भाजपा की दो दिवसीय राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक गोवा में संपन्न हो गई। गोवा इन दिनों मानसून की फुहारों में भीग रहा है लेकिन ऐसा लग रहा है कि पार्टी के भीतर विरोध की चिंगारी को शांत करने में ये फुहारें नाकाम रहीं। अब बड़ा सवाल यह है कि क्या अंतविर्रोधाें, खेमेबाजी से उबर कर भाजपा खुद को इतना सशक्त बना पाएगी कि चुनावों में जीत का भरोसा अपने कार्यकर्ताओं को दिला सके। यह कहना अतिशयोक्ति नहींहोगी कि गोवा की राष्ट्रीय कार्यकारिणी में नरेन्द्र मोदी भाजपा पर हावी रहे। मुख्यमंत्री मनोहर परिकर ने उनके पक्ष में माहौल बनाने में कोई कसर नहींछोड़ी। जगह-जगह लगे बैनर-पोस्टरों में नरेन्द्र मोद बाकी नेताओं से कहींज्यादा उभरे दिख रहे थे और पोस्टरों की इस छवि को हकीकत में बदलने के लिए भाजपा का वर्तमान नेतृत्व तत्पर है, यह साफ नजर आ रहा है। यही कारण है कि बैठक के ठीक पहले पार्टी के सबसे वरिष्ठ नेता लालकृषण आडवानी बीमार पड़ जाते हैं और उनके पदचिह्नों पर चलते हुए जसवंत सिंह, उमा भारती आदि भी बीमार पड़ जाते हैं। श्री आडवानी बैठक में शामिल नहींहुए, ऐसा उनके सुदीर्घ राजनीतिक जीवन में पहली बार हुआ कि उन्होंने राष्ट्रीय कार्यकारिणी में हिस्सा नहींलिया। हालांकि ब्लाग लिखकर अपनी सक्रियता उन्होंने प्रकट कर दी। उमा भारती, जसवंत सिंह, वरुण गांधी, मेनका गांधी, यशवंत सिन्हा जैसे बड़े नेता इस कार्यकारिणी में शामिल नहींहुए और इसके बावजूद भाजपा के प्रवक्ता, टीवी पर दिखने-बोलने वाले मुखड़े यह मानने तैयार नहींहैं कि भाजपा के भीतर कोई द्वन्द्व चल रहा है, किसी प्रकार की खेमेबाजी हो रही है। हालांकि नरेन्द्र मोदी को प्रधानमंत्री पद का योग्य उम्मीदवार बताने वाले यशवंत सिन्हा ने मीडिया से कहा कि उन्हें कोई नमोनिया नहींहुआ, वे अन्य कारणों से इस बैठक में शामिल नहींहुए। न्यूज चैनलों के मुताबिक श्री सिन्हा ने कहा कि न वे आडवानी खेमे में हैं, न मोदी खेमे में। इसका अर्थ यह हुआ कि भाजपा में खेमेबाजी चल रही है। बहरहाल, खेमेबाजी, वरिष्ठ नेताओं की खामोश नाराजगी के बावजूद अनुमानों के मुताबिक नरेन्द्र मोदी को 2014 की चुनाव प्रचार समिति का अध्यक्ष बना दिया गया। यह घोषणा जब राष्ट्रीय अध्यक्ष राजनाथ सिंह ने प्रेस वार्ता में की, तो उनके साथ सुषमा स्वराज, अरूण जेटली, वैंकेया नायडू आदि थे, लेकिन उनके चेहरों पर वह उत्साह नहींझलक रहा था, जो मोदी समर्थकों में दिख रहा था।
श्री मोदी लगातार तीसरी बार गुजरात के मुख्यमंत्री बने हैं, इसके पीछे उनकी आक्रामक प्रचार शैली को काफी हद तक जिम्मेदार माना जाता है। इसी आक्रामकता को भाजपा 2014 के चुनावों में भुनाकर लाभ उठाना चाहती है। लेकिन जिस प्रकार मोदी को मुख्य पात्र बनाकर प्रस्तुत किया जा रहा है, उससे ऐसा लग रहा है कि यह बात केवल प्रचार तक सीमित नहींहै, बल्कि इसका राजनीतिक आयाम काफी व्यापक है। मोदी समर्थकों का एक बड़ा वर्ग इस बात के लिए एड़ी-चोटी का जोर लगा रहा है कि उन्हें प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार खुल कर घोषित कर दिया जाए। यही कारण है कि चुनाव प्रचार समिति का अध्यक्ष उन्हें बनाए जाने पर समर्थकों ने ढोल-नगाड़े बजाकर, मिठाइयां खिलाकर जश्न मनाया। इसके पहले किसी नेता को किसी एक कार्य का प्रभारी बनाए जाने पर ऐसा जश्न मनाया गया हो, ताजपोशी, राजतिलक जैसे विशेषणों से नवाजा गया हो, प्रवक्ताओं को बारंबार मीडिया से मुखातिब होना पड़ा हो, याद नहींपड़ता। हालिया राजनीतिक इतिहास में यह अभूतपूर्व घटना मानी जाएगी। लेकिन इसके नतीजे क्या निकलेंगे, इस बारे में कुछ भी कहना जल्दबाजी होगी। विजय की मुद्रा दिखाते नरेन्द्र मोदी भाजपा के लिए सकारात्मक प्रचार का माहौल तैयार करेंगे या राष्ट्रीय राजनीति में अपने लिए बड़ा स्थान बनाएंगे, यह देखने वाली बात होगी। भाजपा के जो लोग उनसे असंतुष्ट हैं, उन्हें वे किस तरह मनाएंगे? और अगर मना नहींपाए तो उसका क्या असर भाजपा की भावी रणनीति पर पड़ेगा, यह भी बड़ा प्रश्न है। कोई मोदी समर्थक कांग्रेस को राम-नाम सत्य की तर्ज पर नमो-नमो सत्य है, के मंत्र का भय दिखा रहा है। कोई कांग्रेस मुक्त भारत का आह्वान कर रहा है। नरेन्द्र मोदी अपने संबोधन में कांग्रेस के भारत निर्माण के हक पर शक जता कर उसकी सरकार का मखौल उड़ा रहे हैं। कांग्रेस पर ऐसे राजनीतिक प्रहार प्रमुख विपक्षी दल से होने ही थे। लेकिन केवल कांग्रेस को कोस कर भाजपा केन्द्रीय सत्ता में नहींआ सकती, इसके लिए उसे देश के समक्ष सकारात्मक दृष्टिकोण प्रस्तुत करना होगा, जो फिलहाल उसके बीमार नेताओं के कारण संभव होता नहींदिखता।
आडवानी ...के इस्तीफे ..........का अर्थ
भाजपा में 2014 के चुनाव प्रचार की कमान नरेन्द्र मोदी को सौंपें जाने का जश्नकाल अभी खत्म ही नहींहुआ कि संकटकाल प्रारंभ हो गया। भाजपा के संस्थापक सदस्य, वरिष्ठतम नेता और हाल-हाल तक प्रधानमंत्री पद के इच्छुक दावेदार लालकृष्ण आडवानी ने यकायक पार्टी की राष्ट्रीय कार्यकारिणी, संसदीय समिति और चुनाव समिति से इस्तीफा दे कर सबको अचंभित कर दिया। इन पंक्तियों के लिखे जाने तक पार्टी के कई वरिष्ठ नेता श्री आडवानी के घर उनकी मान मनौव्वल में जुटे हैं और राष्ट्रीय अध्यक्ष राजनाथ सिंह ने भी साफ कह दिया है कि वे उनका इस्तीफा स्वीकार नहींकर रहे हैं। 9 जून 2013 के पहले तक आडवानी के लाल माने जाने वाले नरेन्द्र मोदी की कोई प्रतिक्रिया इन पंक्तियों के लिखे जाने तक सामने नहींआयी है। लालकृष्ण आडवानी और भाजपा के कई वरिष्ठ नेता गोवा की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक में शामिल नहींहुए थे। इसके पीछे बीमार होना कारण बताया गया था। हालांकि सब जानते थे कि असली रोग क्या है और उसके कीटाणु कहां छिपे हैं। जब राजनाथ सिंह नरेन्द्र मोदी को चुनाव प्रचार समिति का अध्यक्ष बनाए जाने की घोषणा कर रहे थे, तब आजू-बाजू बैठे-खड़े नेताओं के चेहरे पर हाथ से बाजी निकल जाने के भाव प्रकट हो रहे थे। उनके समक्ष अपनी महत्वाकांक्षाओं को दरकिनार करते हुए नरेन्द्र मोदी को अपना नेता मानने के अलावा कोई चारा नहींबचा था। लेकिन आडवानीजी इतनी आसानी से बाजी अपने हाथ से कैसे निकलने दे सकते हैं। राष्ट्रीय कार्यकारिणी में वे हिस्सा नहींले रहे थे लेकिन ब्लाग में भीष्म पितामह, हिटलर, मुसोलिनी, विश्वरूपम आदि सांकेतिक भाषा के जरिए अपने मनोभावों को प्रकट कर रहे थे। जब उन्हें यह नजर आया कि पार्टी में उनका कद बड़ा बताने वाले लोग दरअसल केवल उनकी छाया ही बनाए रखना चाहते हैं, छत्र हटा लेना चाहते हैं, तो उन्होंने इस्तीफे का यह दांव खेला। ध्यान रहे कि लालकृष्ण आडवानी ने केवल तीन जगहों से इस्तीफा दिया है, वे भाजपा के सदस्य अब भी हैं, सांसद अब भी हैं और एनडीए के अध्यक्ष अब भी हैं। इसका अर्थ यह हुआ कि वे इस्तीफा देकर राजनीति से संन्यास नहींले रहे, बल्कि राजनीति का नया अध्याय शुरु कर रहे हैं। 2005 में जिन्ना प्रकरण पर श्री आडवानी को इस्तीफा देने पर मजबूर किया गया था, तब परिस्थितियां दूसरी थीं। 2007 में प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार बताते हुए उनकी वापसी हो गई और कद, सम्मान, प्रतिष्ठा भी पूर्ववत बरकरार रही। लेकिन अब हालात बदले हुए हैं। नमो मंत्र कांग्रेस आदि पार्टियों के लिए मारक साबित न हुआ हो, भाजपा में खेमेबाजी का कारक अवश्य साबित हो गया है। इतिहास खुद को दोहराता है और भाजपा में राजनैतिक इतिहास का यही दोहराव देखने मिल रहा है। भाजपा के गठन के पहले जनसंघ में अटलबिहारी बाजपेयी और लालकृष्ण आडवानी की युवा जोड़ी थी, जिसके कारण तब जनसंघ के संस्थापकों में से एक वरिष्ठ नेता बलराज मधोक को निष्कासन झेलना पड़ा था।
1973 में जनसंघ के कानपुर में आयोजित राष्ट्रीय अधिवेशन में लालकृष्ण आडवानी पहली बार राष्ट्रीय अध्यक्ष बने और उन्होंने अध्यक्ष पद के अन्य दावेदार बलराज मधोक को अनुशासन बनाए रखने की खातिर निष्कासित कर दिया था। लंबे समय तक सक्रिय राजनीति करने के बाद अब 94 वर्ष की अवस्था में श्री मधोक राजनीतिक वनवास में हैं और लगभग गुमनाम हैं। लालकृष्ण आडवानी इस राजनैतिक इतिहास को यहां दोबारा घटित होते नहींदेखना चाहते। इसलिए उन्होंने भाजपा की वर्तमान युवा पीढ़ी के आगे हथियार नहींडाले हैं। इस्तीफा देकर उन्होंने गेंद राष्ट्रीय अध्यक्ष के पाले में डाल दी है कि अब वे तय करें कि पार्टी को इस अंतर्कलह से कितना नुकसान होते देखना चाहते हैं। भाजपा विरोधी खुश होकर अभी से यह घोषणा करने लगे हैं कि जिस पार्टी के अंदरूनी हालात ठीक नहींहै, वह देश को कैसे ठीक दिशा दे पाएगी। भाजपा के कर्ता-धर्ता यह कतई नहींचाहेंगे कि बर्तन खड़कने के इस शोर का असर चुनावी पकवान पर पड़े। इसलिए सभी क्षतिपूर्ति की कोशिशों में लग गए हैं। अब बड़ा सवाल यह है कि एनडीए में भाजपा के सहयोगी दल कौन से खेमे के साथ होंगे या बिल्कुल अलग होना पसंद करेंगे। सबसे बड़े घटक दल जदयू के राष्ट्रीय अध्यक्ष और एनडीए संयोजक शरद यादव ने इस नई परिस्थिति पर विचार कर निर्णय लेने की बात कही है। शिवसेना का कहना है कि श्री आडवानी को मना लेना चाहिए। अकाली दल इसे भाजपा का मामला बता रहा है। कुल मिलाकर भाजपा के वर्तमान कर्णधारों को न केवल लालकृष्ण आडवानी को साधना होगा, बल्कि मोदी से असहमत घटक दलों को भी संजोकर रखना होगा।
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