मुबारक का हश्र

मुबारक का हश्र

 

मुबारक का हश्र
 
 
 

 

काहिरा के तहरीर (मुक्ति) चौक पर लगातार जारी जनता का विशाल प्रदर्शन समूचे मध्य पूर्व के लिए एक सबक था और है। सेना के टैंकों और सैनिकों की भारी उपस्थिति से अविचलित जैसा जन-सागर उस ऐतिहासिक चौक पर उमड़ता रहा है, उससे तीन दशक से चले आ रहे हुस्नी मुबारक निजाम को हटाने और जनतांत्रिक सुधारों की मिस्र की जनता की बहुमत मांग लगातार मुखर ही हुई। इससे पहले जहां हुस्नी मुबारक ने संकट से उबरने की कोशिश में तथा ऊपर-ऊपर से कुछ सुधारों के लिए तैयार होने का संदेश देने की कोशिश में नए मंत्रिमंडल को शपथ दिलाई और इसी साल होनेवाले राष्ट्रपति चुनाव में खड़े न होने का वायदा भी किया, वहीं जनता के ऐतिहासिक मार्च की पूर्व-संध्या में सेना की ओर से जारी जनता के खिलाफ ताकत का इस्तेमाल न करने के वक्तव्य ने सत्ता से चिपके रहने के मुबारक के प्रयासों पर एक जबर्दस्त आघात भी किया। हालांकि बाद में सेना ने प्रदर्शनकारियों को वापस लौटने को कहा और शुक्रवार को खुद मुबारक ने भी सत्ता से न हटने का संकेत दिया। लेकिन जनता जब निर्णायक रूप से सड़क पर उतर आती है, तो कुछ भी हो सकता है। समूचे घटनाक्रम से यह तो स्पष्ट है कि मिस्र में रूपांतरण की एक जबर्दस्त प्रक्रिया पिछले काफी समय से चलती चली आ रही है।
मिस्र का यह घटनाक्रमट्यूनीशिया में पिछले ही दिनों हुए जन विद्रोह की पृष्ठभूमि में सामने आया। इस ‘जास्मिन रेवोल्यूशन’ का असर संक्रामक तरीके से मध्य पूर्व के अन्य देशों में भी फैल गया। इससे पहले विकिलीक्स के खुलासों ने बताया था कि किस तरह इन देशों के शासक अथाह दौलत के ताल में डुबकियां लगा रहे हैं, जबकि जनता का बहुमत बदहाली में रह रहा है।

यह इसी का सुबूत है कि यमन में हजारों की संख्या में छात्रों और विपक्षी कार्यकर्ताओं ने अली अब्दुल्ला सालेह का तानाशाहीपूर्ण निजाम खत्म करने की मांग करते हुए अनिश्चितकालीन विरोध कार्रवाई शुरू की है। इसी तरह जॉर्डन में, जहां पिछले 90 वर्षों से हाशमी राजवंश का राज चल रहा है, इस जनवरी में भड़के जन-विरोधी आंदोलन के केंद्र में रोटी और स्वतंत्रता का नारा लगा, जो जनतंत्र की मांग के साथ बढ़ती असमानताओं तथा बढ़ते भाई-भतीजावाद को भी रेखांकित करता है। जॉर्डन में भी संकट को टालने की कोशिश में सुलतान ने पुरानी सरकार को बर्खास्त कर एक नई सरकार का गठन किया है। ऐसे आंदोलन की खबरें मोरक्को, अल्जीरिया आदि मध्य पूर्व के दूसरे देशों से भी आ रही हैं। अरब टेलीविजन चैनल अल जजीरा ने तमाम पाबंदियों और अपने संवाददाताओं की जगह-जगह पर गिरफ्तारियों के बावजूद इन आंदोलनों की तसवीरें सारी दुनिया तक पहुंचाई हैं। इन देशों की जनता दशकों से तानाशाही को तो भुगतती ही आ रही थी, पिछले दो वर्षों की आर्थिक मंदी में उसे भारी आर्थिक कठिनाइयां भी झेलनी पड़ी हैं। मिस्र में 30 लाख और जॉर्डन में पांच लाख लोगों की रोजी-रोटी सीधे वित्तीय क्षेत्र से जुड़ी है। ऐसे में वैश्विक आर्थिक संकट की पृष्ठभूमि में स्वेज नहर से, पर्यटन से तथा निर्यातों से मिस्र की आय तथा सकल घरेलू उत्पाद की वृद्धि दर में तेज गिरावट आई है। बेरोजगारी की दर, जो 2005 में 34 फीसदी पर पहुंच चुकी थी, अब और तेजी से बढ़ी है।

साफ है कि शीतयुद्धोत्तर काल में अमेरिका ने जो नई विश्व व्यवस्था गढ़ने की कोशिश की थी, वह तेजी से बैठ रही है। यही नहीं, विश्व घटनाक्रम को तय करने की अमेरिकी क्षमता भी कमजोर हो गई लगती है। अतीत में अमेरिकी साम्राज्यवाद ने अपने रणनीतिक हितों की रक्षा के लिए मध्य पूर्व के अनेक देशों में दखलंदाजी की थी। बीती सदी के पचास के दशक में ईरान में मोसाद्देह के शासन ने जब देश की तेल संपदा का राष्ट्रीयकरण किया था, तो सीआईए के जरिये उसका तख्तापलट करा दिया गया। इसी प्रकार, जब मिस्र के नासिर निजाम ने स्वेज नहर का राष्ट्रीयकरण किया, तो ब्रिटिश-फ्रांसीसी सेना ने उस पर चढ़ाई कर दी और वहां अमेरिकापरस्त निजाम बिठा दिया। इससे जहां तेल स्रोतों का नियंत्रण उसके हाथ में आ गया, पश्चिमी मालों और अमेरिकी सैन्य बलों की आवाजाही के लिए महत्वपूर्ण स्वेज नहर पर उसका अंकुश स्थापित हो गया, तथा उस क्षेत्र में अमेरिकी सैन्य सर्वोच्चता स्थापित हो गई। उसके बदले में 1978 के कैंपडेविड समझौते के समय से ही मिस्र को 35 अरब डॉलर से ज्यादा की सैन्य सहायता मिली, जो इस्राइल के बाद सबसे बड़ी सहायता है। काहिरा को दो अरब डॉलर सालाना की ‘अन्य’ सहायता भी मिलती रही।

ऐसे में अचरज की बात नहीं कि मानवाधिकारों, जनतंत्र तथा मानवीय मूल्यों का स्वयंभू संरक्षक अमेरिका इस समूचे घटनाक्रम पर अपनी प्रतिक्रियाओं में बहुत फूंक-फूंककर पांव रखता आया है। इतना तो साफ ही है कि मुसलिम ब्रदरहुड के सत्ता में आ जाने का हौवा खड़ा करने की कोशिशें कामयाब नहीं हुई हैं। अब सभी की नजरें अंतरराष्ट्रीय परमाणु ऊर्जा एजेंसी के प्रमुख, अल बरदेई की ओर लगी हुई हैं, जो कुछ ही अरसा पहले मिस्र में लौटे हैं और नेशनल एसोसिएशन फॉर चेंज के प्रमुख हैं। जाहिर है, अमेरिका अल बरदेई का उपयोग करने की कोशिश करेगा। मौजूदा जन उभार को नए ढंग के इसलामी तानाशाहीपूर्ण निजाम के गड्ढे में गिरने से बचाने का एक रास्ता तो वही है, जिसे ट्यूनीशिया की प्रगतिशील पार्टी एत्तजदीद ने स्वर दिया है। नई सरकार में शामिल इस पार्टी का कहना है कि हमें क्रांति की रक्षा करनी चाहिए, लेकिन महिला अधिकारों और धर्मनिरपेक्षता की अपनी उपलब्धियों की भी रक्षा करनी होगी। लोकतांत्रिक व्यवस्था कायम करके ही इस दुरभिसंधि को शिकस्त दी जा सकती है

 

 


मिस्र के जनांदोलन की तस्वीर और भी ज्यादा जटिल रूप ग्रहण करती जा रही है और राष्ट्रपति हुसैनी मुबारक की राजनीतिक चालें पिटती चली जा रही हैं। सेना और प्रतिवादियों में मुठभेड़ को टालने के लिए लिहाज से मुबारक ने अपने समर्थकों को मैदान में उतारा ,जगह-जगह उनके समर्थकों ने रैलियां की और मुबारक विरोधियों से मुठभेडें कीं, जिनमें आठ लोग मारे गए और सैंकड़ों घायल हुए हैं।
    जब बृहत्तर जनसमूह मुबारक के खिलाफ मैदान में था और सेना ने सीधे कार्रवाई से मना कर दिया तो ऐसे में मुबारक समर्थकों का रैलियां आत्मघाती कदम ही कहलाएगा। इस एक्शन के गलत परिणाम निकले है और कल मिस्र के प्रधानमंत्री ने इन मुठभेड़ों के लिए माफी मांगी है।

    नवनियुक्त प्रधानमंत्री अहमद शफ़ीक़ ने देश में हुई घटनाओं के लिए माफ़ी मांगी है.उल्लेखनीय है राष्ट्रपति समर्थक और विरोधी गुटों की बीच झड़पों में आठ लोग मारे गए हैं और सैकड़ों लोग घायल हुए हैं. उन्होंने हिंसा की जाँच का वादा किया है.
      प्रधानमंत्री ने कहा, "मैं इस घटना के लिए सबके सामने खुलकर माफ़ी माँगता हूँ इसलिए नहीं कि यह मेरी ग़लती थी या किसी और की. मैं तो इस बात से दुखी हूँ कि मिस्र के ही लोग इस तरह आपस में लड़ रहे हैं. फूट तो परिवारों में भी होते हैं लेकिन कल जो हुआ वह किसी योजना का हिस्सा नहीं थामैं उम्मीद करता हूँ कि इंशा अल्लाह सब ठीक हो जाएगा।"
     जनांदोलन का ही दबाब है कि मिस्र के शासनाध्यक्ष संविधान में जरूरी परिवर्तन की बात कह रहे हैं।  उपराष्ट्रपति ने टेलीविजन से प्रसारित अपने संदेश में कहा, "हम संवैधानिक और विधायिका संबंधी सुधार लागू करेंगे और हर मुद्दे के अध्ययन के लिए एक समिति का गठन करेंगे. इसके बाद हम इसकी भी जाँच करेंगे कि ऐसी घटनाएँ क्यों हुई.।"
    मुश्किल यह है कि जनता लोकतंत्र की मांग कर रही है और लोकतंत्र का संविधान में प्रावधान ही नहीं है। लोकतंत्र से कम पर वह कुछ भी स्वीकार करने को तैयार नहीं है। मुबारक को हटाने की मांग उनकी पहली मांग है लेकिन असल मांग है मिस्र में लोकतंत्र की स्थापना की जाए। मुबारक और उनके समर्थक यदि संविधान संशोधन करके लोकतंत्र की स्थापना का संकल्प व्यक्त करते हैं तो उसका कुछ असर भी होगा।
           मुबारक और अमेरिका की रणनीति है कि किसी तरह आंदोलनकारी जनता को शांत किया जाए और उन्हें तहरीर स्क्वेयर से वापस घर भेजा जाए। लेकिन आंदोलनकारी वापस जाने को तैयार नहीं दिख रहे हैं। आंदोलनकारियों को शांत करने के लिहाज से अमेरिका ने अंतर्राष्ट्रीय परमाणु ऊर्जा आयोग के अध्यक्ष अल बरदाई,उपराष्ट्रपति सामी अनान,सेना के मुखियाओं की मदद लेने का फैसला किया है साथ ही कैमिस्ट्री में नोबेल पुरस्कार प्राप्त अहमद जुएल की भी मदद ली जा रही है लेकिन अभी तक कोई अनुकूल परिणाम नहीं मिले हैं। इसका प्रधान कारण है अलबरदाई और अहमद जुएल का मिस्र में आंदोलनकारियों में कोई जनाधार नही है।
    तहरीर चौक पर सेना और टैंकों की घेराबंदी बनी हुई है। चौक पर आंदोलनकारी जमे हुए हैं। आंदोलन के दबाब में मुबारक ने पुराने मंत्रीमंडल को भंग करके जो नया मंत्रीमंडल बनाया है उसमें बड़े पैमाने पर सेना के बड़े अफसरों को रखा गया है इससे एक बात तो यह निकलती है कि अमेरिका मिस्र में आने वाले समय में जनता का शासन नहीं चाहता बल्कि नग्न सैन्यशासन चाहता है क्योंकि ये सारे परिवर्तन अमेरिकी राष्ट्रपति ओबामा के इशारे पर हो रहे हैं।
     मुबारक और उनके साथी यह हौव्वा खड़ा कर रहे हैं कि मिस्र में ब्रदरहुड नामक फंडामेंटलिस्ट संगठन के सत्ता में आ जाने का खतरा है अतः सेना की मदद बेहद जरूरी है। असल में मिस्र के मौजूदा प्रतिवाद को संगठित किया है लोकतांत्रिक शक्तियों ने,इसमें बड़े पैमाने पर मजदूरों संगठनों की भी भूमिका है। यह सच है  मुस्लिम ब्रदरहुड संगठन मिस्र का सबसे बड़ा मुबारक विरोधी संगठन है और वह इस प्रतिवाद में शामिल है लेकिन जनता के और भी तबके शामिल हैं प्रतिवाद में।
   मुबारक विरोधियों की मांग है कि सबसे पहले राष्ट्रपति इस्तीफा दें और उसके बाद एक सभी गुटों को मिलाकर एक राष्ट्रीय सरकार का गठन किया जाए और आंदोलनकारियों की मांगों पर विचार किया जाए।
     मिस्र के प्रतिवादी आंदोलन में आम जनता पर व्यापक हमले हुए हैं साथ ही मीडिया पर भी हमले हुए हैं। यहां तक कि विदेशी पत्रकारों को गिरफ्तार और उत्पीडित किया गया है।अब तक24 पत्रकार गिरफ्तार किए गए हैं और 21 पत्रकारों पर हमले हुए हैं। पांच मामलों में पत्रकारों के उपकरण सेना ने जब्त कर लिए हैं। मुबारक प्रशासन का सबसे ज्यादा गुस्सा अल जजीरा टीवी चैनल पर है। सेना ने उसके 3 पत्रकारों को बंद कर दिया है,चार पर हमला हुआ है और एक पत्रकार लापता है। अलजजीरा के अनुसार सेना ने दर्जनों पत्रकारों के कैमरा और दूसरे संचार उपकरण छीनकर नष्ट कर दिए गए हैं।

 


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