तेईस जुलाई वर्ष 1916 को लोकमान्य तिलक की ६क्वीं वर्षगांठ थी। दो वर्ष पूर्व ही वे मांडले में 6 वर्ष की सजा पूर्ण कर छूटे थे। उनका जन्मोत्सव उनके सभी स्नेहीजनों ने धूमधाम से मनाने का निश्चय किया। यह निर्णय सर्वसम्मति से लिया गया कि पूना में तिलक का सार्वजनिक अभिनंदन किया जाएगा और सम्मानस्वरूप उन्हें एक लाख रुपए की थली भेंट की जाएगी। अंतत: वह शुभ दिन आ ही गया। देश के कोने-कोने से कई राष्ट्रीय नेता और तिलक भक्त उनके अभिनंदन के लिए पूना पधारे। पूना के गायकवाड़े में आयोजन किया गया।
सब तरफ हंसी-खुशी का वातावरण था। भाषण चर्चा और बातचीत के बीच हास्य-विनोद की लहर भी चल रही थी। स्वयं तिलक पूर्ण उत्साह से कार्यक्रम में हिस्सा ले रहे थे। इसी बीच जिला पुलिस सुपरिंटेंडेंट आए और तिलक को एक नोटिस दिया।
नोटिस में लिखा था- आपके अहमदनगर और वेलगांव में दिए गए भाषण राजद्रोहात्मक हैं, इसलिए क्यों न एक वर्ष तक नेक चलनी का बीस हजार मुचलका और दस-दस हजार की दो जमानतें आपसे ली जाएं। तिलक ने शांतिपूर्वक इसे पढ़कर ले लिया और फिर सभा में आकर उसी तरह समरस हो गए। उनके चेहरे पर शिकन तक नहीं थी। उपस्थित जनसमुदाय को उन्होंने इस घटना का भान तक न होने दिया।
यह प्रसंग स्थितप्रज्ञता का उदाहरण है। सुख-दुख में निरपेक्ष भाव से रहते हुए अपनी सहजता को कायम रखना स्थितप्रज्ञता है जो विशेष रूप से विपत्ति के क्षणों में काम आती है। स्थितप्रज्ञता से विचलन नहीं होता, जो अशांति का जनक होता है
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