वर्ष 2011 की शुरुआत में ही अरब के कुछ प्रमुख देशों में जिस तरह सत्तातंत्र के विरूध्द संघर्ष छिड़ गया है, वह आने वाले समय में विश्व राजनीति में एक बड़े बदलाव का द्योतक है।
टयूनीशिया में सत्ता परिवर्तन की आंधी लेबनान, यमन, जोर्डन और मिस्र तक जा पहुंची है। जनता सड़कों पर उतर आयी है और शासक अपने खोल में सिमट कर आंधी से बचने के रास्ते ढूंढ रहे है। अरब देशों में लोकतंत्र के लिए संघर्ष उसी प्रकार फैलता जा रहा है, जैसा द्वितीय विश्वयुध्द के बाद और उपनिवेशवाद के खात्मे के साथ एशिया, अफ्रीका के कई देशों में प्रसारित हुआ था। अरब देशों में यह आंदोलन इसलिए पनपा क्योंकि गरीबी, बेरोजगारी, महंगाई और उस पर शासन तंत्र की बेरूखी से जनता आजिज आ चुकी है। यूं ऐसी स्थिति विश्व के अधिकांश देशों की है। आज जो हालात अरब देशों में हैं, कमोबेश वैसे ही भारत में हैं। इन देशों में भी अमीरी और गरीबी के बीच की खाई बढ़ती जा रही है। गरीबों की संख्या में निरंतर वृध्दि हो रही है, दूसरी ओर आर्थिक विकास का सूचकांक बढ़ता जा रहा है। मिस्र में हुस्नी मुबारक के 30 सालों के शासन के बाद जनता जिस तरह उनके खिलाफ उठ खड़ी हुई है और उनसे इस्तीफे से कम कुछ नहींचाहती, उसके पीछे प्रमुख कारण यही बताए जा रहे हैं कि वहां जनता शासन के ढंग से तंग आ चुकी है। हुस्नी मुबारक के बारे में यही प्रचलित है कि वे विरोधियों को कम बर्दाश्त कर पाते हैं। मिस्र में चुनावों की वैधता पर जनता को संदेह है, पुलिस क्रूर है, भ्रष्टाचार चरम पर है, लोगों के पास काम की कमी है और आधी से अधिक जनता की आजीविका 2 डालर या उससे भी कम प्रतिदिन है। इसलिए आज मिस्र में जो महाभारत मची है, दरअसल उसकी जमीन काफी अरसे से तैयार हो रही थी। टयूनीशिया की क्रांति ने मिस्र में आंदोलन की राह प्रशस्त कर दी।
1981 से हुस्नी मुबारक मिस्र की सत्ता संभाल रहे हैं। अपने पूर्ववर्ती अनवर अल सदात की हत्या के बाद जब मुबारक ने सत्ता ग्रहण की तो उनका मिस्र के लोगों से आह्वान था कि अब हम एक नए मार्ग पर बढ़ रहे हैं, जहां बाधाएं हमें रोक नहींसकतीं। हम निर्माण करेंगे, विध्वंस नहीं, रक्षा करेंगे, डराएंगे नहीं, सहेजेंगे, बिखराएंगे नहीं। इन शब्दों के साथ वायुसेना के पूर्व प्रमुख हुस्नी मुबारक ने गमाल अब्दुल नासिर और अनवर अल सदात की विरासत संभाली। लेकिन उनका दृष्टिकोण नासिर की तरह कभी भी व्यापक नहींहो पाया, न ही वे सदात की तरह इजरायल के साथ शांति संधि करने जैसे मजबूत निर्णय ले पाए। उन्होंने स्थायित्व लाने के लिए आपातकाल के कानून का इस्तेमाल किया और शनै:-शनै: पुलिस की ताकत के साथ राज करने की परिपाटी पड़ गयी। जनता इतने वर्षों तक दमन के डर से खामोश रही। लेकिन अब आवाज उठने लगी है।
अंतरराष्ट्रीय समुदाय में अरब देशों में उठे इस आंदोलन से थोड़ी खलबली मची है, जो कि स्वाभाविक है। आज विश्व संचार साधनों के कारण सचमुच ऐसा ग्राम बन गया है, जहां एक कोने में मची हलचल का असर दूसरे कोने पर भी पड़ता है। अरब देशों के आंदोलन का विश्व अर्थव्यवस्था पर क्या प्रभाव होगा, इस बारे में फिलहाल कुछ भी कहना जल्दबाजी होगी। किंतु राजनैतिक समीकरण इससे निश्चित रूप से प्रभावित होेंगे। इजरायल-फिलीस्तीन के संघर्ष में संतुलन स्थापित करने में मिस्र अब तक सक्रिय भूमिका का निर्वाह करता आया है। हुस्नी मुबारक ने स्थायित्व के लिए परोक्ष तानाशाही जरूर की, किंतु उनके काल में उदारवाद देखने मिला। अब विपक्षियों को मुस्लिम ब्रदरहुड का खुला समर्थन है। इससे कट्टरपंथियों को बढ़ावा मिलने का अंदेशा है। अमरीका ने हुस्नी मुबारक से जनता की भावना का सम्मान करने की अपील की है। ब्रिटेन, फ्रांस, जर्मनी सहित यूरोप के अनेक देश भी जनतंत्र के समर्थन में हैं। भारत गुटनिरपेक्ष आंदोलन के अपने इस साथी से अब काफी दूर हो चुका है। इसलिए वहां की राजनैतिक व्यवस्था दरकने का कोई असर यहां नहींपड़ेगा, फिर भी अपने इस पुराने मित्र के लिए उसकी कामना यही होनी चाहिए कि वहां लोकतंत्र आए, लेकिन उदारवादी व्यवस्था बरकरार रहे।
सब बड़े ध्यान से देख रहे हैं कि मिस्र में तहरीर चौक पर भीड़ जमा है। यहां से वहां तक सिर्फ सिर दिखाई दे रहे हैं। सब मिलकर काहिरा में डटे एक आदमी को हटाना चाहते हैं। आदमी कई सालों से उनका देश चलाता रहा है। अब लगता है कि देश समझ गया है कि वह आदमी उन्हें कैसे चला रहा था। दुनिया देख रही है कि औरतें, नौजवान, पकी उम्र वाले, सब इकट्ठा हैं और अल्टीमेटम पर अल्टीमेटम दिए जा रहे हैं। उन्हें अपना देश चाहिए, वह भी अपने हिसाब से चाहिए। अभी और इसी वक्त चाहिए।
दिल्ली में काहिरा क्यों नहीं होता?
हमारी सब्जी मंडी केरोजाना केग्राहक पूछ रहे हैं, क्या अपनी मंडी में ‘काहिरा’ नहीं हो सकता? मंडी में बैठे छोटे दुकानदार कह रहे हैं, अब गोदामों के खिलाफ ‘काहिरा’ होना चाहिए। किसान बार-बार जानना चाह रहे हैं कि बिचौलियों का ‘काहिरा’ कैसे किया जा सकता है?
आम तौर पर जो मिस्र की ममी और तूतनखामन के नाम पर काहिरा की दुनिया को समझाते होंगे, उनके लिए भी अब काहिरा रूप बदलकर कुछ और होता जा रहा है। जैसे एक जेबकतरे ने बस में जेब काटने से पहले आश्वस्त होना चाहा कि कहीं यहां ‘काहिरा’ तो नहीं हो जाएगा? एक लुटेरे ने एटीएम लूटते वक्त आस-पास देखा कि कहीं ‘काहिरा’ तो नहीं आ रहा है?
जेबकतरे और एटीएम लुटेरे भले ही ऐसा सोचें, लेकिन दिल्ली उससे ऊपर की आश्वस्ति रखती है।
दिल्ली प्रति सप्ताह दो के हिसाब से घपलों का आनंद लेती है। प्रधानमंत्री कहते हैं, कमाई बढ़ी है, तो महंगाई भी बढ़ेगी। एक दूसरे सम्मानित सज्जन बता रहे हैं कि महंगाई तो समृद्धि बढ़ने का लक्षण है। वित्त मंत्री ने कहा है कि उनके पास कोई जादुई चिराग नहीं है, जो घिस कर महंगाई से निजात दिला दें। हालांकि महंगाई पर ‘काहिरा’ न हो, इसके लिए समृद्धि की भाषणबाजी उपलब्ध कराई जाती है, लेकिन तब क्या हो, जब संचार मंत्री ए राजा यूपीए के प्रधानमंत्री की बात न मानें और अपने लीडर करुणानिधि की सेवा कर दें। ए का पैसा बी को जाए और सी को पता हो, फिर भी सी कहे कि बी से हमारी दोस्ती का ए के पैसों से कोई लेन-देन कैसे हो सकता है? इस सवाल पर कोई ‘काहिरा’ नहीं होता। और यह सब प्रधानमंत्री भी बने रहते हैं और उनके मददगार भी। और यह सब कैसे हो, जबकि प्रॉपटी और खेल केघोटालों में भी ‘काहिरा’ नहीं होता। करोड़ों रुपये की नकदी आईएएस अफसर मियां-बीवी के घर मिली, तो कई ने कहा, अब तो अफसरों के खिलाफ ‘काहिरा’ हो जाएगा, लेकिन अगले ही हफ्ते चार और आनंद मनाते निकल आए! काहिरा का कोई अता-पता न था। ऊपर से क्रिकेट के धंधे में गुप्त खाते वालों के प्रशंसा पत्र बंटने लगे। हमें येदियुरप्पा ने बताया है कि उन पर विरोधी काला जादू करने की साजिश रच रहे हैं। जनता जानना चाहती है कि यह काला जादू होता कैसे है? वह कई लोगों पर चलाना चाहती है, लेकिन कोई तांत्रिक हत्थे पड़ता नहीं।
अफसोस है कि बेशर्मी, झूठ, चालाकी और जालसाजी के अवतार दिल्ली चलाते चले जाते हैं, लेकिन कोई ‘काहिरा’ नहीं होता?
‘काहिरा’ करने के लिए क्या पहले पक्की तानाशाही पिटाई चाहिए?
जनतंत्र है, इसलिए दिल्ली मजे में है। शायद पब्लिक भी मजे में है। सोचती है, जब तानाशाही आएगी, तब देखेंगे। फिलहाल तो ‘काहिरा’ के फोटो देखिए और जुमले उछालकर फारिग हो जाइए
This section is empty.