देश के ज्यादातर लोग बिहार में नीतीश कुमार के फिर से चुने जाने की उम्मीद कर रहे थे। लेकिन चुनावी नतीजे ने ज्यादातर राजनीतिक पर्यवेक्षकों को भी चकरा दिया, क्योंकि उनमें से ज्यादातर लोगों ने जद (यू)-भाजपा गठबंधन की इतनी बड़ी जीत का अंदाजा नहीं लगाया था। बल्कि नतीजा आने के बाद अपनी पहली प्रेस कांफ्रेंस में खुद नीतीश कुमार ने भी ऐसी भारी जीत पर सुखद आश्चर्य जताया। उल्लेखनीय है कि हाल के दशकों में उत्तर भारत में किसी भी राजनीतिक गठबंधन की यह सबसे बड़ी और शानदार जीत है। नीतीश कुमार के सुशासन और ईमानदार नीतियों पर सीधे-सीधे मुहर लगाते हुए बिहार के मतदाताओं ने 80 प्रतिशत से भी ज्यादा सीटों पर उन्हें विजय दिलाई।
हालांकि यहां बड़ा सवाल यह है कि क्या बिहार के चुनावी नतीजे को राष्ट्रीय राजनीति के संदर्भ में एक बदलाव के संकेत के रूप में देखना चाहिए। ऐसा केवल इसलिए नहीं कि लगभग नौ करोड़ की आबादी वाला बिहार देश के सबसे बड़े राज्यों में से एक है। बल्कि इसलिए भी कि अतीत में भी इस राज्य ने खासकर राजनीतिक रूप से महत्वपूर्ण हिंदी पट्टी को दिशा दिखाई है। करीब 25 वर्ष पूर्व देश में सामाजिक न्याय का आंदोलन चलाकर बिहार ने अपनी खास पहचान बनाई थी। उसके तहत उन पिछड़ी जातियों, गरीबों और दलितों को आवाज देकर सत्ता संरचना में सबसे ऊंचे पायदान पर पहुंचाया गया था, जो उस समय तक ऊंची जातियों और आभिजात्य लोगों द्वारा ही संरक्षित माने जाते थे।
कटु सचाई यह है कि पिछले कुछ दशकों से जाति, क्षेत्रीयता और धार्मिक पहचान ही चुनावी नतीजों को प्रभावित करती आई थी और बाकी मुद्दे गौण हो गए थे। लेकिन अब बिहार में बदलाव के संदेश जोर-शोर से और स्पष्ट रूप से सुनाई दे रहे हैं। राजनीतिक रूप से देश के सबसे जागरूक समझे जाने वाले इस राज्य के मतदाताओं ने भावनात्मक नारेबाजी, भीड़ को उत्तेजित करने वाले मुद्दों और घिसे-पिटे मुहावरों के झांसे में आने से इनकार कर दिया। इसके बजाय उन्होंने एक ऐसी सरकार को दोबारा सत्ता में लाने के लिए वोट दिया, जिसने सुशासन का न सिर्फ वायदा किया था, बल्कि उसे यथासंभव निभाया भी।
अपने हर चुनावी भाषण में नीतीश कुमार यही कहते रहे कि अब भी बहुत कुछ करना बाकी है। बिहार के पुराने गौरव की वापसी की कहानी अभी शुरू हुई है। ‘आप मुझे पांच वर्ष और दें, मैं बिहार को एक विकसित राज्य बना दूंगा।’ बिहार के लोगों ने नीतीश कुमार के वायदे पर जिस तरह भरोसा किया, वह भी उतना ही उल्लेखनीय है। मतदाताओं ने उनके वायदे पर इसलिए भरोसा किया कि पांच साल पहले किया गया अपना वायदा उन्होंने निभाया था। शेखी बघारने के बजाय उन्होंने जनता की उम्मीदों पर खरा उतरने का काम किया। वह वायदा करने में हालांकि कंजूस हैं, लेकिन सचाई यह है कि जितना उन्होंने कहा, उससे कहीं ज्यादा दिया।
उन्होंने सुरक्षित बिहार का आश्वासन दिया और उसे पूरा किया। उन्होंने अच्छी सड़कों, बेहतर शिक्षा और बालिका सशक्तिकरण का वायदा किया था, जो विकास के लिए जरूरी होते हैं। वहां जमीनी स्तर पर जो कुछ बदलाव हुआ है, उसे आज हर कोई देख रहा है। बिहार का चुनावी नतीजा ऐसे समय आया है, जब संसद में गतिरोध है और यह परिणाम मनमोहन सिंह सरकार की मुश्किलें और बढ़ाएगा ही। दरअसल 2 जी स्पेक्ट्रम घोटाले पर कांग्रेस के नेतृत्व वाली गठबंधन सरकार और विपक्ष के बीच समझौते की कोई गुंजाइश नहीं दिख रही। बिहार के इस नतीजे से भाजपा नीत वह विपक्ष और प्रोत्साहित ही होगा, जो पहले से भ्रष्टाचार के मुद्दे पर बेबस सरकार को घेरे हुए है। ऐसे में राष्ट्रीय राजनीति पर बिहार के नतीजे का दूरगामी प्रभाव पड़ सकता है। दरअसल हाल के दिनों में भ्रष्टचार के एक के बाद एक खुलासे ने लोगों को चिड़चिड़ा, क्षुब्ध और हताश कर दिया है। इस पृष्ठभूमि में बिहार के जनादेश को आशा और उम्मीद के रूप में देखा जा रहा है, जिसमें मतदाताओं ने सुशासन को पुरस्कृत किया है। कहने की जरूरत नहीं कि बिहार का चुनाव परिणाम शैली पर योग्यता और तड़क-भड़क पर प्रदर्शन की जीत है।
बिहार में नीतीश कुमार के प्रमुख विरोधी पूर्व केंद्रीय रेल मंत्री और लालू प्रसाद यादव थे। यह सच है कि उनके उत्कर्ष के दौर में करिश्मा और लोकप्रियता में उनकी बराबरी कर सकने वाले नेता पूरे देश में मुट्ठी भर ही थे। नीतीश कुमार करिश्मे के बजाय कामकाज के हामी हैं। उनके भाषणों में जोश कम होता है, लेकिन वे तथ्यपूर्ण होते हैं। वह लोगों से जुड़े हैं, लेकिन उनकी एक झलक पाने, उनसे हाथ मिलाने या उन्हें छूने के लिए बेताब लोगों की भीड़ कभी नहीं रहती। उनके आसपास सचाई का एक घेरा है, जो समय आने पर करिश्माई अभिवादन को समानता के आधार पर अपनाता है।
बिहार चुनाव जहां महज चार सीटों पर सिमट गई कांग्रेस के लिए खतरे की घंटी की तरह है, वहीं यह उसके युवा नेता राहुल गांधी के लिए एक चेतावनी भी है। देश के सबसे प्रतिष्ठित परिवार के नाम, सुंदर चेहरा, गालों में गड्ढे पड़ने वाली मुसकान और निष्कपट व ईमानदार राजनीति के संयोग ने इस युवा गांधी को देश का करिश्माई नेता बना दिया है। लेकिन सचाई यही है कि बिहार में उनके सतत चुनाव प्रचार के बावजूद कांग्रेस को विफलता हाथ लगी है। अगर कांग्रेस को अपना जनाधार भविष्य में बरकरार रखना है, तो बिहार में अपनी रणनीति पर उसे पुनर्विचार तो खैर करना ही होगा, दूसरी पीढ़ी का मजबूत और विश्वसनीय नेतृत्व भी तैयार करना होगा, जिससे कि वह भविष्य में कुछ महत्वपूर्ण विधानसभा चुनावों में जीत दर्ज करने में सफल हो सके
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